जैन ध्वज
जैन ध्वज पाँच रंगो से मिलकर बना एक ध्वज है। इसके पाँच रंग है: लाल, पीला,सफेद, हरा और नीला। जैन ध्वज में स्वस्तिक रत्न त्रय और सिद्धशिला का उपयोग अरिहंत और आचार्य दोनों के प्रतिक रंगो पर किया जाता है ! कुछ लोग इसे पीले रंग पर रेखांकित करते हैं तथा कुछ सफ़ेद रंग पर ... दोनों ही सही है ( ये दोनों अलग अलग मतांतर है)
रंग
संपादित करेंजैन धर्म में पाँच पदों को सबसे सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इन्हें पंचपरमेष्ठी कहते हैं[1] ध्वज के पाँच रंग 'पंचपरमेष्ठी' के प्रतीक है
- लाल - सिद्ध भगवान, मुक्त आत्माएँ। जिनका मोक्ष हो चूका है अथवा जो आत्माये जन्म मरण से मुक्त हो चुकी है उन्हें सिद्ध कहा जाता है हालाँकि मोक्ष का मार्ग अरिहंत बताते हैं और उसी भव में मोक्ष जाने वाले भी होते हैं परन्तु अरिहंत आयुष्य कर्म सहित होते हैं इसलिए इनका प्रतिक रंग ध्वज में सिद्ध के प्रतिक रंग से नीचे होता है !
- सफ़ेद - अरिहन्त, शुद्ध आत्माएँ या जिन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया हो। मोक्ष मार्ग के उपदेशक होते हैं ! अरिहंत द्वारा ही चतुर्विध संघ की (साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका) स्थापना होती है और सर्व विरति और देश विरति धर्म के प्रवर्तक होते हैं इसलिए इनका प्रतिक रंग सफ़ेद सिद्ध के प्रतिक रंग के नीचे होता है !
- पीला - आचार्य का प्रतिक रंग है ! जैन काल मान के हिसाब से जब केवलज्ञान होना (भरतक्षेत्र और ऐरावतक्षेत्र के हिसाब से) बंद हो जाता है तब संघ का दायित्व आचार्य का होता है ! जैन दर्शन में इस समय आचार्य ही वर्त्तमानिक सर्वोपरि पद है जिसकी आज्ञा में सारा संघ रहता है !
- हरा - उपाध्ययों के लिए, जो शास्त्रों का सम्पूर्ण ज्ञान रखते हैं।
- नीला - साधुओं के लिए, यह अपरिग्रह का भी प्रतीक है।
प्रतीक
संपादित करेंस्वस्तिक
संपादित करेंध्वज के मध्य में बना स्वस्तिक चार गतियों का प्रतीक है:
- मनुष्य
- देव
- तिर्यंच
- नारकी
रत्न
संपादित करेंस्वस्तिक के ऊपर बने तीन बिंदु रत्न त्रय के प्रतीक है:
- सम्यक् दर्शन
- सम्यक् ज्ञान
- सम्यक् चरित्र
इसका अर्थ है रत्न त्रय धारण कर जीव चार गतियों में जनम मरण से मुक्ति पा सकता है।
सिद्धशिला
संपादित करेंइन बिंदुओं के ऊपर सिद्धशिला, जो लोक के अग्र भाग में है, उसकी आकृति बनी है। और लोक के विस्तारवाली अर्थात 45 लाख योजन विस्तार वाली अर्द्धचंद्राकार है जो मध्य में मोटी और किनारो से पतली है !
इन्हें भी देखे
संपादित करें- ↑ प्रमाणसागर २००८, पृ॰ १४८.