नेमिनाथ

22 बाईसवें तीर्थंकर अनिष्टनेमी जी


अरिष्टनेमि या नेमिनाथ

नेमिनाथ
बाईसवें जैन तीर्थंकर
विवरण
अन्य नाम: अरिष्टनेमि
एतिहासिक काल: 82000 ई.पू.
परिवार
पिता: समुद्रविजय
माता: शिवदेवी
वंश: यदुवंशी क्षत्रिय
स्थान
जन्म: सौरीपुर
निर्वाण: गिरनार
लक्षण
रंग: काला
चिह्न: शंख
ऊंचाई: १० धनुष (३० मीटर)
आयु: १००० वर्ष
शासक देव
यक्ष: गोमेध
यक्षिणी: अम्बिका
राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली में नेमिनाथ की मूर्ति|

नोट:- [[दो जैन तीर्थंकरों ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि या नेमिनाथ के नामों का उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है। अरिष्टनेमि को भगवान श्रीकृष्ण का निकट संबंधी माना जाता है।]]

(या, अरिष्टनेमि जी) जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर थे।[1]

भगवान श्री अरिष्टनेमी अवसर्पिणी काल के बाईसवें तीर्थंकर हुए। इनसे पूर्व के इक्कीस तीर्थंकरों को प्रागैतिहासिककालीन महापुरुष माना जाता है। आधुनिक युग के अनेक इतिहास विज्ञों ने प्रभु अरिष्टनेमि को एक ऐतिहासिक महापुरुष के रूप में स्वीकार किया है।

वासुदेव श्रीकृष्ण एवं तीर्थंकर अरिष्टनेमि न केवल समकालीन युगपुरूष थे बल्कि पैतृक परम्परा से भाई भी थे। भारत की प्रधान ब्राह्मण और श्रमण-संस्कृतियों ने इन दोनों युगपुरूषों को अपना-अपना आराध्य देव स्वीकारा है। ब्राह्मण संस्कृति ने वासुदेव श्रीकृष्ण को सोलहों कलाओं से सम्पन्न विष्णु का अवतार स्वीकारा है तो, श्रमण संस्कृति ने भगवान अरिष्टनेमि को अध्यात्म की सर्वोच्च विभूति तीर्थंकर तथा वासुदेव श्रीकृष्ण को महान कर्मयोगी एवं भविष्य का तीर्थंकर मानकर दोनों महापुरुषों की आराधना की है।

भगवान अरिष्टनेमि का जन्म यदुकुल के ज्येष्ठ पुरूष दशार्ह-अग्रज समुद्रविजय की भार्या शिवा देवी की रत्नकुक्षी से श्रावण शुक्ल पंचमी के दिन हुआ। समुद्रविजय शौर्यपुर के शासक थे। जरासंध से विवाद के कारण समुद्रविजय यदुवंशी परिवार सहित सौराष्ट्र प्रदेश में समुद्र तट के निकट द्वारिका नामक नगरी बसाकर रहने लगे। श्रीकृष्ण के नेतृत्व में द्वारिका को राजधानी बनाकर यदुवंशियों ने महान उत्कर्ष किया।

अंततः एक वर्ष तक वर्षीदान देकर अरिष्टनेमि श्रावण शुक्ल षष्टी को प्रव्रजित हुए। चौपन दिवसों के पश्चात आश्विन कृष्ण अमावस्या को प्रभु केवली बने। देवों के साथ इन्द्रों और मानवों के साथ श्रीकृष्ण ने मिलकर कैवल्य महोत्सव मनाया। प्रभु ने धर्मोपदेश दिया। सहस्त्रों लोगों ने श्रमण-धर्म और सहस्त्रों ने श्रावक-धर्म अंगीकार किया।

वरदत्त आदि ग्यारह गणधर भगवान के प्रधान शिष्य हुए। प्रभु के धर्म-परिवार में अठारह हजार श्रमण, चालीस हजार श्रमणियां, एक लाख उनहत्तर हजार श्रावक एवं तीन लाख छ्त्तीस हजार श्राविकाएं थीं। आषाढ शुक्ल अष्ट्मी को गिरनार पर्वत से प्रभु ने निर्वाण प्राप्त किया।

The picture of 22nd Jain Thirthankar Lord Arishtha Neminath, taken at Sri Munisuvrat-Nemi-Parsva Jinalaya, Santhu, Jalore, Rajasthan, India by Sony Digital Camera.

भगवान के चिह्न का महत्व

शंख - भगवान अरि्ष्टनेमि के चरणों में अंकित चिन्ह शंख है। शंख में अनेक विशेषताएं होती है। ‘संखे इव निरंजणे‘ शंख पर अन्य कोई रंग नहीं चढ़ता। शंख सदा श्वेत ही रहता है। इसी प्रकार वीतराग प्रभु शंख की भांति राग-द्वेष से निर्लेप रहते हैं। शंख की आकृति मांगलिक होती है और शंख की ध्वनि भी मांगलिक होती है। कहा जाता है कि शंख-ध्वनि से ही ॐ की ध्वनि उत्पन्न होती है। शुभ कार्यों यथा : जन्म, विवाह, गृह-प्रवेश एवं देव-स्तुति के समय शंख-नाद की परम्परा है। शंख हमें मधुर एवं ओजस्वी वाणी बोलने की शिक्षा देता है।

नोट - दो जैन तीर्थंकरों ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि या नेमिनाथ के नामों का उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है। अरिष्टनेमि को भगवान श्रीकृष्ण का निकट संबंधी माना जाता है।

  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 17 अक्तूबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 जून 2019.
  NODES
camera 1