प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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समाधि ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]

१. समर्थन ।

२. नियम ।

३. ग्रहण करना । अंगीकार ।

४. ध्यान ।

५. आरोप ।

६. प्रतिज्ञा ।

७. प्रतिशोध । बदला ।

८. विवाद का अंत करना । झगड़ा मिटाना ।

९. कोई असंभव या असाध्य कार्य करने के लिये उद्योग करना । कठिनाइयों में धैर्य के साथ उद्योग करना ।

१०. चुप रहना । मौन ।

११. निद्रा । नींद ।

१२. योग ।

१३. योग का चरम फल, जो योग को आठ अंगों में से अंतिम अंग है और जिसकी प्राप्ति सबके अंत में होती है । विशेष—इस अवस्था में मनुष्य सब प्रकार के क्लेशों से मुक्त हो जाता है, चित्त की सब वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं, बाह्य जगत् से उसका कोई संबंध नहीं रहता, उसे अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं और अंत में कैवल्य की प्राप्ति होती है । योग दर्शन में इस समाधि के चार भेद बतलाए हैं—संप्रज्ञात समाधि, सवितर्क समाधि, सविचार समाधि ओर सानंद समाधि । समाधि की अवस्था में लोग प्रायः पद्मासन लगाकर और आँखें बंद करके बैठते हैं, उनके शरीर में किसी प्रकार की गति नहीं होती; और ब्रह्म में उनका अवस्थान हो जाता है । विशेष दे॰ 'योग' ३६ और ३८ । क्रि॰ प्र॰—लगना ।—लगाना ।

१४. किसी मृत व्यक्ति की अस्थियाँ या शव जमीन में गाड़ना । क्रि॰ प्र॰—देना ।

१५. वह स्थान जहाँ इस प्रकार शव या अस्थियाँ आदि गाड़ी गई हों । छतरी ।

१६. काव्य का एक गुण जिसके द्वारा दो घटनाओं का दैवसंयोग से एक ही समय में होना प्रकट होता है और जिसमें एक हो क्रिया का दोनों कर्त्ताओं के साथ अन्व य होता है ।

१७. एक प्रकार का अर्थालंकार जो उस समय माना जाता है जब किसी आकस्मिक कारण से कोई कार्य बहुत ही सुगमतापूर्वक हो जाता है । उ॰— (क) हरि प्रेरित तेहि अवसर चले पवन उनचास । (ख) मीत गमन अवरोध हित सोचत कछू उपाय । तब ही आकस्मात तें उठी घटा घहराय ।

१८. साथ मिलाना या करना (को॰) ।

१९. गरदन का जोड़ या उसकी एक विशेष अवस्था (को॰) ।

२०. दुर्भिक्ष के समय अनाज बचाकर रखना । अन्न संचय (को॰) ।

२१. तपस्या (को॰) ।

२२. पूर्ति । संपन्नता (को॰) ।

२३. प्रतिदान (को॰) ।

२४. सहारा । आश्रय (को॰) ।

२५. इंद्रियनिरोध (को॰) ।

२६. सत्तरहवाँ कल्प (को॰) । यौ॰—समाधिनिष्ट=समाधिस्थ । समाधिभंग=समाधि टूटना । समाधिभृत्=समाधि में लीन । समाधिभेद=(१) समाधि के चार भेद । (२) समाधि भंग होना ।

समाधि ^२ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ समाधित या समाधान] दे॰ 'समाधान' । (क्व॰) । उ॰—ब्याधि भूत जनित उपाधि काहू खल की समाधि कीजै तुलसी को जानि जन फुर कै । —तुलसी (शब्द॰) ।

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